भगवत् प्राप्ति व परीक्षण का विधि-विधान

भगवत् प्राप्ति व परीक्षण का विधि-विधान

तद्विद्वि प्राणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥
(श्रीमद् भगवद् गीता ४/३४)
इसलिए तत्त्व को जनाने वाले तत्त्वज्ञानदाता पुरुष से भली प्रकार दण्डवत् प्रणाम तथा सेवा और निष्कपट भाव से किए हुये प्रश्न द्वारा उस तत्त्वज्ञान को जान। वे ‘तत्त्व’ को साक्षात् देखने वाले तत्त्वज्ञानदाता महापुरुष तुझे उस तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे.
(इस श्लोक पर प्रश्नोत्तरी के रूप में गीता प्रेस गोरखपुर वाले श्री जयदयाल गोयन्दका द्वारा लिखित गीता तत्त्व विवेचनी से उद्घृत किया गया जो अग्रलिखित है। (टीका अगले पृष्ठों पर देखें।)  

प्रश्न:- यहाँ तत् पद किसका वाचक है?

उत्तर:- समस्त साधनों के फलस्वरूप जिस तत्त्वज्ञान की पूर्व श्लोक; श्लोक संख्या-४/३३ में प्रशंसा की गयी है और जो परमात्मा के रूप का यथार्थ ज्ञान है, उसका वाचक यहाँ तत् पद है।

प्रश्न:- उस ज्ञान को जानने के लिये कहने का क्या भाव है?

उत्तर:- इससे भगवान ने यह भाव दिखलाया है कि परमात्मा के यथार्थ तत्त्व को बिना जाने मनुष्य जन्म-मरण रूप कर्मबन्धन से नहीं छूट सकता, अतः उसे तत्त्वज्ञान अवश्य जान-प्राप्त कर लेना चाहिए।

प्रश्न:- यहाँ तत्त्वदर्शी ज्ञानियों से ज्ञान को जानने के लिये कहने का क्या अभिप्राय है?

उत्तर:- भगवान ने बार-बार परमात्मतत्त्व की बात काही जाने पर भी उसके न समझने से अर्जुन में श्रद्धा की कुछ कमी सिद्ध होती है अतएव उनकी श्रद्धा बढ़ाने के लिये अन्य ज्ञानियों से ज्ञान सीखने के लिए कहकर उन्हें चेतावनी दी गयी है।

प्रश्न:- प्रणिपात किसको कहते हैं?

उत्तर:- श्रद्धा-भक्ति पूर्वक सरलता से दण्डवत् प्रणाम करना प्रणिपात कहलाता है।

प्रश्न:- सेवा किसको कहते हैं?

उत्तर:- श्रद्धा-भक्ति पूर्वक महापुरुषों के पास निवास करना, उनकी आज्ञा का पालन करना, उनके मानसिक भावों को समझकर हरेक प्रकार से उनको सुख पहुँचाने की चेष्टा करना----ये सभी सेवा के अन्तर्गत है।

प्रश्न:-परिप्रश्न किसको कहते हैं?

उत्तर:- परमात्मा के तत्त्वको जानने की इच्छा से श्रद्धा और भक्ति भाव से किसी बात को पूछना परिप्रश्न है। अर्थात् मैं कौन हूँ? माया क्या है? परमात्मा का क्या रूप है? मेरा और परमात्मा का क्या सम्बन्ध है? बन्धन क्या है? मुक्ति क्या है? और किस प्रकार साधन करने से परमात्मा की प्राप्ति होती है?----इत्यादि ज्ञान विषयक समस्त बातों को श्रद्धा, भक्ति और सरलता पूर्वक पूछना ही परिप्रश्न है; तर्क और वितण्डा से प्रश्न करना परिप्रश्न नहीं है।

प्रश्न:- प्रणाम करने से सेवा करने से और सरलता पूर्वक प्रश्न करने से, तत्त्वज्ञानी तुझे ज्ञान का उपदेश करेंगे------इस कथन का क्या अभिप्राय है? क्या ज्ञानीजन इन सबके बिना ज्ञान का उपदेश नहीं करते?

उत्तर:- उपर्युक्त कथन से भगवान ने ज्ञान की प्राप्ति में श्रद्धा, भक्ति और सरलभाव की आवश्यकता का प्रतिपादन किया है। अभिप्राय यह है कि श्रद्धा-भक्ति रहित मनुष्य को दिया हुआ उपदेश उसके द्वारा ग्रहण नहीं होता; इसी कारण महापुरुषों को प्रणाम, सेवा और आदर-सत्कार की कोई आवश्यकता न होने पर भी, अभिमान पूर्वक, उद्दण्ड्ता से, परीक्षाबुद्धि से या कपटभाव से प्रश्न करने वाले के सामने तत्त्वज्ञान सम्बन्धी बातें कहने में उनकी प्रवृति नहीं हुआ करती। अतएव जिसे तत्त्वज्ञान प्राप्त करना हो, उसे चाहिए कि श्रद्धा-भक्ति पूर्वक महापुरुषों के पास जाकर उनको आत्मसमर्पण करें, उनकी भलीभाँति सेवा करें और अवकाश देखकर उनसे परमात्मा के तत्त्व की बातें पूछें। ऐसा करने से जैसे बछड़े को देखकर वात्सल्यभाव से गौ के स्तनों में बच्चे के लिए माँ के स्तनों में दूध स्रोत बहने लगता है, वैसे ही ज्ञानी पुरुषों के अन्तःकरण में उस अधिकारी को उपदेश करने के लिए ज्ञान का समुद्र उमड़ आता है। इसलिए श्रुति में भी कहा है कि:
तद्विज्ञानार्थ स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणि: श्रोत्रियं ब्रम्हनिष्ठम्।
(मुण्डकोपनिषद् १/२/१२)
अर्थात्त उस तत्त्वज्ञान को जानने के लिए वह जिज्ञासु समिधा-----यथाशक्ति भेंट हाथ में लिए हुये निरभिमान होकर वेद-शास्त्रों के ज्ञाता तत्त्वज्ञानी महात्मा पुरुष के पास जावे।

प्रश्न:- यहाँ ज्ञानिन;’ के साथ तत्त्वदर्शिन: विशेषण देने का और उसमें बहुवचन के प्रयोग का क्या भाव है?

उत्तर:- ज्ञानिन: के साथ तत्त्वदर्शिन: विशेषण देकर भगवान ने यह भाव दिखलाया है कि परमात्मा के तत्त्व को भलीभाँति जानने वाले वेदवेत्ता ज्ञानी महापुरुष ही उस तत्त्वज्ञान का उपदेश दे सकते हैं, केवल शास्त्र के ज्ञाता या साधारण मनुष्य नहीं तथा यहाँ बहुवचन प्रयोग ज्ञानी महापुरुष को आदर देने के किए किया गया है, यह कहने के लिए नहीं कि तुम्हें बहुत से तत्त्वज्ञानी मिलकर ज्ञान का उपदेश करेंगे।

न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा।
दिव्यं ददामि ते चक्षु: पश्य मे योगमैश्वरम्।।
(श्रीमद्भगवद्गीता ११/८)
भगवदवतारी श्रीकृष्ण जी महाराज ने अर्जुन से कहा, परन्तु मुझको तु इन अपने प्राकृत नेत्रों द्वारा देखने में निः संदेह समर्थ नहीं है; इसी से मैं तुझे दिव्य अर्थात् अलौकिक चक्षु (नेत्र) देता हूँ; इससे तु मेरी ईश्वरीय योग-शक्ति को देख।

भक्त्या त्वनन्ययाशक्य अहमेवं विधोsर्जुन ।
ज्ञातुं दृष्टु च तत्त्वेन प्रवेष्टु च परंतप ॥
(श्रीमद् भगवद् गीता ११/५४)
हे परम तप वाले अर्जुन ! अनन्य भक्ति करके तो इस ‘तत्त्व’ रूप वाला ‘मैं’ प्रत्यक्ष देखने के लिए और ‘तत्त्वको जानने के लिए ‘तत्त्व’ में ही प्रवेश करने के लिए ‘तत्त्व’ द्वारा ही शक्य हूँ।

मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्त: संगवर्जित:।
निर्वैर: सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव।।
(श्री मद्भगवद्गीता ११/५५)

हे अर्जुन ! जो पुरुष केवल मेरे ही लिये सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को करने वाला है, मेरे परायण है, मेरा भक्त है, आसक्ति रहित है और सम्पूर्ण भूत-प्राणियों में वैरभाव से रहित है, वह अनन्य भक्तियुक्त पुरुष मुझको ही प्राप्त होता है।

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्।।
(श्री मद्भगवद्गीता १८/५५) 
और उस पराभक्ति के द्वारा वह मुझ परमात्मा को, मैं जो हूँ और जितना हूँ, ठीक वैसा-का वैसा तत्त्व से जान लेता है, तथा उस अनन्य भक्ति से मुझको तत्त्वतः जानकर तत्काल ही मुझमें प्रविष्ट हो जाता है।

मन्मना भव मदभक्तों मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोsसि मे ।।
(श्री मद्भगवद्गीता १८/६५)
हे अर्जुन ! तू मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो और मुझको प्रणाम कर। ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त होगा, यह मैं तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ, क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है।

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:।।
(श्रीमद्भगवद्गीता १८/६६)
सम्पूर्ण धर्मों को अर्थात् कर्तव्यकर्मो को (मुझमें) त्यागकर (तू केवल) एक मुझ सर्वशक्तिमान सर्वाधार परमेश्वर के ही शरण में आ जा मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर।

भगवत् प्राप्ति व परीक्षण का विधि-विधान 
ब्रम्हाण्ड में जो भी विषय-वस्तुयेँ और शक्ति-सत्ता हैं, उन सभी को जानने-देखने का अथवा मिलने-पाने का अपना-अपना विधि-विधान होता है। इतना ही नहीं, क्षमता शक्ति के अनुसार प्रत्येक के पीछे परख-परीक्षण लगा ही रहता है।
ब्रम्हाण्ड में कोई विषय-वस्तु अथवा शक्ति-सत्ता ऐसा नहीं है जिसको जानने-देखने और मिलने-पाने का अपना कोई विधि-विधान न हो। उदाहरणार्थ आप हम सभी को प्यास बुझाने हेतु जल पीना है तो इसकी भी अपनी एक विधि है कि किसी साफ-सुथरे बर्तन से स्वच्छ जल मुँह के रास्ते से लिया जाय। अब यहाँ पर जल-पात्र यदि साफ-सुथरा न हो तो भी हानिकर और जल-पात्र व जल साफ-सुथरा स्वच्छ ही हो मगर पीना मुख से है तो उसे मुख से न पीकर कान से या आँख से पीने का प्रयास किया जाय तो प्यास तो बुझेगी नहीं, उल्टे परेशानी-कठिनाई भी होने लगेगी और हानिकर भी होगा। इस प्रकार जल पीना एक क्रिया है, मगर उपर्युक्त शेष बातें उसके विधि-विधान के अन्तर्गत आयेंगी। ऐसा ही ब्रम्हाण्ड में किसी भी विषय-वस्तु अथवा शक्ति-सत्ता को लिया जाय और खोज किया जाय तो निश्चित रूप से यह देखने को मिलेगा कि उसको जानने-पाने देखने-समझने, उसका प्रयोग-उपयोग करने सम्बन्धी अपना एक कोई-न-कोई विधि-विधान अवश्य है।
आइये ! अब आप के समक्ष उन सभी विधानों को प्रस्तुत किया जा रहा है जिनसे परमाणु से परमात्मा तक, अणु से अल्लाहतआला तक अथवा एटम से आलमाइटी तक सम्पूर्ण को जाना-देखा व परखा-पहचाना या प्राप्त किया जाता है।

१ शिक्षा (Education)
वास्तव में किसी भी विषय-वस्तु अथवा शक्ति-सत्ता को सही रूप में जानने-समझने और मिलने-पाने हेतु उसके अपने विधि-विधान का यदि प्रयोग किया जाय, तब ही उचित रूप उसे जाना-देखा जाँचा-परखा जा सकता है। किसी का भी मिलना-जुलना अथवा जाँच-परख उसके अपने विधि-विधान को जाने और उसका प्रयोग किये वगैर सही रूप में उसे जानना और पाना कदापि संभव नहीं है। इसलिये यहाँ भी हमें जब जड़ जगत् सहित जड़-शरीर को जानना होगा, तो उसका माध्यम शिक्षा ही एक विधान है। शिक्षा के वगैर संसार को सही-सही रूप में जानना-समझना और उसका प्रयोग-उपयोग करना कदापि संभव नहीं है। मगर अब कोई शिक्षित यह सोचे कि हम बहुत पढ़े-लिखे सुशिक्षित हैं। हम किसी भी विषय पर अच्छी प्रकार से लच्छेदार भाषण दे सकते हैं। इसलिये हम जीव के विषय में भी, ईश्वर के विषय में भी और परमेश्वर के विषय में भी भाषण दे सकते हैं ---हम भी प्रवचन-सत्संग कर सकते हैं, तो यह उनका भ्रम और भूल है, क्योंकि एक शिक्षित व्यक्ति शरीर और संसार के मध्य मात्र जड़-पदार्थों की जानकारी ही शिक्षा से जान-समझ पाता है, न कि शरीर से आगे जीव की जानकारी भी आत्मा और परमात्मा अथवा ईश्वर और परमेश्वर की यथार्थ जानकारी तो बहुत-बहुत-बहुत ही दूर की बात है।
पाठक एवं श्रोता बंधुओं ! शिक्षा चाहे जितनी भी उच्च कोटि की हो किन्तु आत्मा और परमात्मा या ईश्वर और परमेश्वर या ब्रम्ह और परमब्रम्ह अथवा नूर और अल्लाहतआला अथवा सोल एण्ड गॉड अथवा सः ज्योति पतनोन्मुखी सोsहँ—हँसो-ज्योति रूप शिव और परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम्-खुदा-गॉड-भगवान को जनाने-दिखाने की क्षमता तो इनमें है ही नहीं, जीव-रूह-सेल्फ-स्व-अहँ-आई को भी जनाने की क्षमता नहीं है। अर्थात् शिक्षा से जीव एवं ईश्वर और परमेश्वर के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं जाना-कहा जा सकता है! यदि कोई अपने को जानकार बनता है और जानने का दावा करता है लेकिन स्वाध्याय (Self Realization) एवं योग-साधना अथवा अध्यात्म (Spiritualization) और तत्त्वज्ञान (True-Suprem and Perfect KNOWLEDGE) रूपी विधि-विधान से हीन है---मात्र शिक्षा के आधार पर बनता और दावा करता हो, तो उसका बनना और दावा करना बिल्कुल ही गलत और व्यर्थ है। क्योंकि उसके द्वारा जो कुछ भी कहा जायेगा, वह भ्रम-भूल एवं मिथ्यातत्त्व से युक्त ही होगा क्योंकि जिस तरह से जड़-जगत् सहित शरीर को जानने का विधि-विधान शिक्षा है, वैसे ही जीव-रूह-सेल्फ-स्व-अहँ को जानने-देखने-परखने का विधि-विधान स्वाध्याय (Self Realization) है।

स्वाध्याय (Self Realization)
स्वाध्याय (Self Realization) के वगैर किसी भी अन्य विधान से जीव-रूह-सेल्फ को देखना तो दूर रहा, जाना भी नहीं जा सकता है। मगर तत्त्वज्ञान रूप पूर्णज्ञान इसका अपवाद है। क्योंकि पूर्णज्ञान के अन्तर्गत तो सभी सामान रूप में पूर्णता के साथ समाहित रहते हैं। इसलिये जो पूर्ण हैं, उस पर अपूर्णता को कोई विधि-विधान लागू नहीं होगा बल्कि पूर्ण के विधि-विधान के अनुसार ही अपूर्ण को होना-रहना-चलना पड़ता है। चूँकि तत्त्वज्ञान पूर्ण ज्ञान है। इसलिये शिक्षा-स्वाध्याय और अध्यात्म का कोई भी विधान तत्त्वज्ञान पर लागू नहीं होता क्योंकि शिक्षा-स्वाध्याय और अध्यात्म पूर्णरूपेण तत्त्वज्ञान में समाहित रहता जबकि तत्त्वज्ञान इनमें से किसी में भी नहीं है।
पुनः एक बार और दोहरा दूँ कि शिक्षा में ईश्वर और परमेश्वर को जनाने की क्षमता तो है ही नहीं, जीव को भी जनाने की क्षमता नहीं होती है।
इसलिये आप पाठक बंधुओं को मैं बार-बार ही यह कहूँगा कि आप जिस किसी चीज को भी जानने चलें तो यह एक बात निश्चित ही याद रखें कि उसका जो विधि-विधान है, उसी विधि-विधान से ही जानने-समझने का प्रयास किया जाय, यदि सही जानकारी प्राप्त करनी है तो।
स्वाध्याय के अन्तर्गत मुख्यतः तीन इकाइयों श्रवण, मनन-चिन्तन और निदिध्यासन होती है जिसमें श्रवण और मनन-चिन्तन जो जीव-रूह-सेल्फ की जानकारी प्राप्त करने के लिए है और निदिध्यासन शरीर से पृथक् क्रियाशील रूप में जीव को देखने का विधान है। अर्थात् श्रवण, मनन-चिन्तन और निदिध्यासन तीनों संयुक्त रूप में स्वाध्याय है। इसमें निदिध्यासन के वगैर जीव का स्पष्टतः दर्शन किसी भी अन्य विधि-विधान से संभव ही नहीं।
जिस प्रकार से संसार और शरीर-जिस्म-बॉडी को जानने के लिए शिक्षा और जीव को जानने के लिये स्वाध्याय सक्षम है और जिस प्रकार से शिक्षा अक्षम है जीव को जानने-जनाने के लिये, ठीक उसी प्रकार शिक्षा और स्वाध्याय दोनों हो अक्षम है आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह-सोल-नूर-स्पिरिट-सः ज्योति रूप शिव को जानने-जनाने के लिये। इसलिये आत्मा को जानने-देखने के लिये योग-साधना अथवा अध्यात्म का सहारा लेना पड़ेगा। लेना ही पड़ेगा अन्यथा होगा ही नहीं।

अध्यात्म (SPIRITUALIZATION)   
जिज्ञासु पाठक बंधुओं ! आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह-सोल-नूर-स्पिरिट-सः ज्योति रूप शिव को जानने के लिये योग-साधना की क्रिया अर्थात् आध्यात्मिक क्रियाओं को करते हुये जीव-रूह-सेल्फ अपने को परिवार और शरीर से मोड़कर आत्मा-नूर-सोल-नूर से जुड़ने हेतु स्वाँस-निःस्वाँस के माध्यम से कुण्डलिनी-शक्ति के सहारे आगे बढ़ते हुए, चक्रों को पार करते हुए, जब षष्टम चक्र रूपी आज्ञा चक्र में पहुँचता है, तब वहाँ उसे दिव्य-दृष्टि के माध्यम से आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह-सोल-स्पिरिट-सः ज्योति रूप शिव का साक्षात्कार यानी साक्षात् दर्शन-दीदार होता है। यह साक्षात्कार कराने की क्षमता किसी भी स्तर के शिक्षित और स्वाध्यायी (Educated and Realizer) में नहीं है-----बिल्कुल ही नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे हिन्दी का चाहे जितना ही बड़ा विद्वान हो, उसे अंग्रेजी के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं मालूम होता। एबीसीडी. कुछ भी मालूम नहीं होता और जिस प्रकार अंग्रेजी का चाहे जितना ही बड़ा विद्वान क्यों न हो, उसे अरबी के सम्बन्ध में कुछ नहीं मालूम होता, अल्लिफ बे पे ते कुछ भी मालूम मालूम नहीं होता। वैसे ही शिक्षा-स्वाध्याय वाला चाहे जितना ही उच्च्स्थ क्यों न हो योग-साधना अथवा अध्यात्म के वगैर आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह-सोल-नूर-स्पिरिट-सः रूप शिव ज्योति को कुछ भी नहीं जान सकता। पाठक एवं श्रोता बंधुओं ! ठीक उपर्युक्त स्थिति तत्त्वज्ञान रूप भगवद्ज्ञान के प्रति शिक्षा, स्वाध्याय और अध्यात्म का है अर्थात् शिक्षा और स्वाध्याय तो शिक्षा और स्वाध्याय है, योग-अध्यात्म में भी वह क्षमता-शक्ति नहीं है कि वह परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रम्ह या परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप खुदा-गॉड-भगवान के सम्बन्ध में कुछ भी जानकारी प्राप्त करा सके। तत्त्वज्ञान के वगैर खुदा-गॉड-भगवान की जानकारी से सम्बंधित यदि कुछ भी कहा जा रहा है तो बिल्कुल ही वह अनुमान पर आधारित होगा जो निश्चित ही भ्रम-भूल एवं मिथ्यात्त्व से युक्त होगा। सम्पूर्ण ब्रम्हाण्ड के अन्तर्गत कहीं पर भी किसी भी कर्म अथवा क्रिया आदि में वह क्षमता नहीं है कि वह वास्तव में भगवत्त प्राप्ति और परिचय-परख-पहचान करा सके। यह क्षमता एकमात्र केवल तत्त्वज्ञान रूप भगवद्ज्ञान रूप सत्य ज्ञान में ही है अन्यथा किसी भी विधि-विधान में नहीं।

तत्त्वज्ञान (Suprem KNOWLEDGE)    
भगवत् प्राप्ति कर्म साध्य तो होता ही नहीं, क्रिया साध्य भी नहीं होता। वह तो एक मात्र केवल कृपा साध्य ही होता है। जिस किसी पर भी भगवत् कृपा होती है, एकमात्र उसे ही भगवत् प्राप्ति-परिचय परख पहचान हो सकता है। अन्य किसी को नहीं। खुदा-गॉड-भगवान कोई मूर्ति-ग्रन्थ तो होता नहीं कि उसे मात्र पूजा-पाठ-आराधना आदि बाह्य क्रियाओं से जाना जाय। वैसे ही वह कोई तन्त्र-मन्त्र भी तो नहीं है कि ॐ आदि के माध्यम से जाना जाय। इतना ही नहीं, वह तो आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह-सोल-नूर-स्पिरिट-सः ज्योति रूप शिव भी नहीं है कि उसे योग-साधना अथवा आध्यात्मिक क्रियाओं से जाना जाय। वह तो एकमात्र परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् ही है जिसे तत्त्वज्ञान के वगैर किसी भी अन्य विधि-विधान से जाना ही नहीं जा सकता।
अन्ततः बतला दूँ कि कर्म सहित मन्त्र-तन्त्र का अभीष्ट ॐ और योग-साधना अथवा अध्यात्म का अभीष्ट आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह-सोल-नूर-स्पिरिट-सः ज्योति रूप शिव है और दोनों ही तत्त्वज्ञान के अभीष्ट परमात्मा-परमेश्वर-खुदा-गॉड-भगवान के अंश मात्र होते हैं और खुदा-गॉड-भगवान उनका अंशी।
इसलिये जिस किसी को वास्तव में संसार और शरीर को यथार्थतः जानना-देखना परखना-पहचानना हो, तो उसके लिये शिक्षा एक अनिवार्य पद्धति है: वैसे ही जीव-रूह-सेल्फ तथा इससे सम्बंधित यदि कोई जानकारी-दर्शन परिचय-परख-पहचान करना-कराना होगा, तो स्वाध्याय ही सक्षम है। ठीक इसी प्रकार आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह-सोल-नूर-स्पिरिट-सः ज्योति तथा इससे सम्बंधित जानकारी और दर्शन-परिचय परख-पहचान करना-कराना हो तो योग-साधना अथवा अध्यात्म से ही सम्भव है स्वाध्याय से नहीं। शिक्षा से तो कल्पना भी कदापि नहीं की जा सकती है। ठीक इसी प्रकार परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रम्ह या परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप खुदा-गॉड-भगवान तथा इससे सम्बंधित कोई भी जानकारी प्राप्त करनी हो-----साथ ही साथ सम्पूर्ण ब्रम्हाण्ड के किसी भी विषय-वस्तु अथवा शक्ति-सत्ता से सम्बंधित किसी भी प्रकार की रहस्यात्मक जानकारी प्राप्त करनी-करानी हो, चाहे वह कर्म प्रधान अथवा अध्यात्म प्रधान अथवा तत्त्वज्ञान प्रधान ही क्यों न हो------सभी की ही रहस्यात्मक जानकारी केवल एकमात्र तत्त्वज्ञान के अन्तर्गत ही समाहित रहती है। यही कारण है कि इस ब्रम्हाण्ड का रहस्य सिवाय भगवान के किसी को भी यहाँ तक कि ब्रम्हा-इन्द्र-शंकर और आदि-शक्ति को भी नहीं होती है, ऋषि-महर्षि और ब्रम्हर्षि की बात कौन पूछे ! कोई ऋषि-महर्षि, देवी-देवता, ब्रम्हा और शंकर के ही समान नहीं, विष्णु के समान होने की बात ही कहाँ? यही कारण है कि तत्त्वज्ञान के खुदा-गॉड-भगवान ने एकमात्र केवल अपने ही लिये आरक्षित एवं सुरक्षित कर लिया।
खुदा-गॉड-भगवान को खुदा-गॉड-भगवान के अतिरिक्त न तो कोई जानता है और न कोई जना ही सकता है। भगवत् कृपा से जो कोई भगवत् कृपा प्राप्त पात्र जान-देख परख-पहचान प्राप्त कर लेता है, वह भी भगवन्मय होता हुआ खुदा-गॉड-भगवान का ही हो जाता है। उसका पृथक् अस्तित्त्व ही नहीं रह जाता ताकि वह जनाने का दावा कर सके। हाँ, जानने का दावा अवश्य कर सकता है, मगर जानने का दावा करते समय उसे यह कहना ही पड़ेगा कि उसने उसी भगवदवतार रूप सद्गुरु से जाना-पाया है और जो कोई जानना-पाना चाहे, तो वह भी उस भगवदवतार रूप सद्गुरु से उनके चरण-शरण में जाकर ही प्राप्त कर सकता है।
अन्ततः यह बतला दूँ कि वर्तमान में इस पूरे भू-मण्डल पर वह तत्त्वज्ञान जिससे सम्पूर्ण संसार-शरीर-जीव-ईश्वर और परमेश्वर की सम्पूर्णतया शिक्षा से-स्वाध्याय से-योग साधना या अध्यात्म से और तत्त्वज्ञान से यथार्थतः जानकारी, साक्षात् दर्शन और बातचीत सहित विराट दर्शन व सृष्टि उत्पत्ति-स्थिति-लय-प्रलय के क्रियात्मक रहस्यात्मक सहित पिछले भगवदवतारों व भगवद् दूतों का भी वास्तविक तात्त्विक साक्षात् दर्शन प्राप्त करने की जिज्ञासा-श्रद्धा भक्ति-समर्पण-शरणागत भाव हो, तो सन्त ज्ञानेश्वर एकमात्र एकमेव एक सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस से ही प्राप्त हो सकता है, अन्य किसी से भी नहीं, क्योंकि वर्तमान में पूरे भू-मण्डल पर यह ही एक मात्र तत्त्वज्ञान दाता हैं। यह बात थोड़े देर के लिए आपको अहंकार लग सकती है, मगर भगवत् कृपा और तत्त्वज्ञान के प्रभाव से सच्चाई यही हो, तो मैं कह-लिख ही क्या सकता हूँ।
वास्तव में जो तत्त्वज्ञानदाता होता है, वह ही भगवान का साक्षात् पूर्णावतार भी होता है मगर वास्तव में सही परिचय-पहचान करना-पाना हो, तो तत्त्वतः तत्त्वज्ञान से ही हो सकता है, अन्यथा नहीं। इति। सब भगवत् कृपा। 

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