खुदा-गॉड-भगवान और भगवदवतार क्या है ?

खुदा-गॉड-भगवान और भगवदवतार क्या है ?

परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप सर्वोच्च शक्ति-सत्ता ही खुदा-गॉड-भगवान है जो एक था, एक ही है और एक ही रहने वाला भी है-----सत्य था, सत्य ही है और सत्य ही रहने वाला भी है---परम था, परम ही है और परम ही रहने वाला भी है----अपरिवर्तनशील था, अपरिवर्तनशील ही है और अपरिवर्तनशील ही रहने वाला भी है----तत्त्वरूप था, तत्त्वरूप ही है और तत्त्वरूप ही रहने वाला भी है---उसे जब भी पाना, जानना, देखना और परखना-पहचानना होगा, तत्त्वतः ही होगा---अन्यथा नहीं।
आदिम काल से ही वर्तमान काल तक जनमानस के बीच सबसे जटिल समस्या यही रही है कि वास्तव में भगवान क्या है? उसे हम कैसे पा और परख-पहचान कर सकते हैं?’ मानव ही क्या अपितु देवजन में भी ये प्रश्न अपने आप में एक जटिल समस्या के रूप में रहे हैं। इन बातों का प्रमाण यदि देखना चाहें तो वेद, उपनिषद्, रामायण, गीता, पुराण, बाइबिल, कुरान और गुरुग्रन्थ साहब आदि आदि सद्ग्रंथों में भरे पड़े हैं। विस्तृतता से बचने के लिए आपके समक्ष एक-दो उदाहरण प्रस्तुत कर रहा हूँ----

देवैरत्रापि विचिकित्सितं पुरा
न हि सुविज्ञेयमणुरेष ध्र्म;
अन्यं वरं नचिकेतो वृणीष्व
मा मोपरोत्सीरति मा सृजैनम् ।।
(कठोपनिषद् १/१/२१)
व्याख्या----नचिकेता ! यह आत्मतत्त्वम् (परमतत्त्वम्) अत्यंत सूक्ष्म विषय है। इसका समझना सहज नहीं है। पहले देवताओं को भी इस विषय में सन्देह हुआ था। उनमें भी बहुत सा विचार विनिमय हुआ था, परन्तु वे भी इसको जान नहीं पाये। अतएव तुम दूसरा वर माँग लो। मैं तुम्हें तीन वर देने का वचन कर चुका हूँ, अतएव तुम्हारा ऋणी हूँ। पर तुम इस वर के लिए जैसे महाजन ऋणी को दबाता हैं, वैसे मुझको मत दबाओ। इस आत्मतत्त्वम् (परमतत्त्वम्) विषयक वर को मुझे लौटा दो। इसको मेरे लिए छोड़ दो।

किं कारणं ब्रम्ह कुतः स्म जाता जीवाम केन क्व च संप्रतिष्ठा ।।
अधिष्ठिता: केन सुखेतरेषु वर्ताकहे ब्रम्हविदो व्यवस्थाम् ।।
(श्वेताश्वतरोपनिषद् १/१)
व्याख्या--- परमब्रम्ह परमात्मा को जानने और प्राप्त करने के लिए उनकी चर्चा करने वाले कुछ जिज्ञासु पुरुष आपस में कहने लगे कि हे वेदज्ञ महर्षिगण ! हमने वेदों में पढ़ा है कि इस समस्त जगत् के कारण ब्रम्ह है, सो वे ब्रम्ह कौन हैं? हम लोग किससे उत्पन्न हुये हैं? हमारा मूल क्या है? किसके प्रभाव से हम जी रहे हैं? हमारे जीवन का आधार कौन है और हमारी पूर्णतय: स्थिति किसमें है अर्थात् हम उत्पन्न होने से पहले—भूतकाल में, उत्पन्न होने के बाद-वर्तमान काल में और इसके पश्चात्-प्रलयकाल में किसमें स्थित रहते हैं? हमारा परम आश्रय कौन है तथा हमारा अधिष्ठाता, हम लोगों का व्यवस्था करने वाला कौन है जिसकी रची हुई व्यवस्था के अनुसार हम लोग सुख-दु:ख दोनों को भोग रहे हैं? वह इस सम्पूर्ण जगत् की व्यवस्था करने वाला इसका संचालक स्वामी कौन है?

इन मंत्रों से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीन काल में भी देवी-देवता, ऋषि-महर्षि आदि भी भगवत् खोज में व्यस्त थे। एक उदाहरण गीता से भी देखिए----

किं तद्ब्रम्ह किमध्यात्मं कि कर्म पुरुषोत्तम ।
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते ।।
(गीता ८/१)
अर्जुन ने कहा----हे पुरुषोत्तम ! वह ब्रम्ह क्या है? अध्यात्म क्या है? कर्म क्या है? अधिभूत नाम से क्या कहा गया है और अधिदैव किसको कहते है?’’ अर्थात् गीता में अर्जुन ने भी तद्ब्रम्ह (वह ब्रम्ह) तथा अध्यात्म आदि-आदि प्रश्नों से ईश्वर और परमेश्वर के विषय में जानने की जिज्ञासा प्रकट की है।
भगवान क्या है?’ यह प्राचीन काल से वर्तमान तक का सबसे जटिलतम् प्रश्न अथवा समस्या रहा है जिसे जानने-समझने, देखने-पाने हेतु नाना प्रकार के मत संप्रदाय और धार्मिक विधि-विधान आज समाज में चले चला रहे हैं। जैसे सनातन धर्मी परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रम्ह, जैन मतावलम्बी अरिहंत, बौध मतावलम्बी बोधिसत्त्व, यहूदी मतावलम्बी यहोवा, ईसाई मतावलम्बी सुप्रीम आलमाइटी-गॉड, ईस्लाम मतावलम्बी खुदा-अल्लाहतआला या काल अलम्, सिक्ख मतावलम्बी अकालपुरुष-सत् सीरी अकाल, कबीर मतावलम्बी सत्पुरुष, वेदांती मतावलम्बी परमपुरुष आदि आदि विभिन्न भाषाओं में विभिन्न नाम से उद्बोधित-उद्घोषित किया है अर्थात् हर प्रकार से परम अथवा सर्वोच्च शक्ति-सत्ता ही खुदा-गॉड-भगवान या अकाल-सत्पुरुष-परमपुरुष हैं। सम्पूर्ण ब्रम्हाण्डों की उत्पत्ति-स्थिति और लय रूप तीनों प्रकार की शक्तियाँ एकमात्र उसी के ही अंशभूत हैं तथा उसी में ही समाहित भी होने रहने वाली अभिन्न रूप भी हैं। उसके वगैर उसको कोई भी जानने वाला नहीं है। यहाँ तक कि ब्रम्हा-इन्द्र और शंकर भी उनको जानना तो दूर रहा, उनकी स्तुति करना लेशमात्र भी नहीं जानते। विश्वास न हो तो प्रमाण देख लें-----

तमहमजमनंतमात्मतत्त्वं जगदुद यस्थिति संयमात्मशक्तिम् ।
द्युपतिभिरजशक्रशंकराद्यैर्दुरवसितस्तवमच्युतं नतोsस्मि ।।
(श्रीमद्भागवत् महापुराण १२/१२/६६)
‘’वे जन्म-मृत्यु आदि विकारों से रहित, देशकालादिकृत् परिच्छेदों से मुक्त एवं स्वयं आत्मतत्त्वम् (भगवत्तत्त्वम्) ही हैं। जगत् की उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय करने वाली शक्तियाँ भी उनकी स्वरूपभूत ही हैं, भिन्न नहीं। ब्रम्हा, इन्द्र, शंकर आदि लोकपाल भी उनकी स्तुति करना लेशमात्र भी नहीं जानते। उन्ही एकरस सच्चिदानन्दघन रूप परमात्मा-परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ। ‘’

एक प्रमाण और गीता से भी देखिए—

न मे विदु: सुरगणा: प्रभवं न महर्षय: ।
अहमादिर्हि देवानां महर्षि परिणाम् च सर्वश: ।।
(श्रीमद्भगवद् गीता १०/२)
भावार्थ---मेरी उत्पत्ति को अर्थात् लीला से प्रकट होने को न देवता लोग जानते हैं और न महर्षिगण ही जानते हैं, क्योंकि मैं सब प्रकार से देवताओं का भी और महर्षियों का भी आदि कारण हूँ।

श्रीरामचरित मानस से भी देखें-----

जग पेखन तुम देखनि हारे, विधि हर शम्भु नचावनि हारे।
तेऊ न जानहिं मरम तुम्हारा, और तुम्हहिं को जाननि हारा ।।
इतना ही नहीं आदिमकाल से लगायत वर्तमान काल तक भी जब भी और जिस किसी ने भी भगवान और भगवदवतार को पाया, जाना और देखा है तब ही उसे आश्चर्यमय ही लगा। अर्थात् गलत कहने के लिए कुछ मिलता नहीं तथा मिलने वाला भगवान और भगवदवतार ही है----ऐसी विश्वसनीयता स्थिरता पूर्वक टिकती नहीं। ऐसा इसलिए क्योंकि एक तरफ उसका आत्मतत्त्वम् (परमतत्त्वम्) मूलक भगवान और भगवदावतार परिचायक ज्ञान और दूसरे तरफ उसकी नर-लीला मानवीय आचरण-व्यवहार जैसा ही अपने को रखना और दिखाना---का होना। पुनः अपने आप में मानव और भगवान के अन्तर्गत होने-रहने वाले भेद-भाव मूलक धारणा के चलते वैचारिक टकराव का होना, जिससे बीच-बीच में भ्रम का उत्पन्न हो जाया करना, पुनश्च ज्ञान-दृष्टि के स्मृति पर भगवद् अस्तित्त्व भाव का हो जाना। आदि-आदि क्रियाओं का बार-बार होना-बिसरना ही आश्चर्यमयता का कारण हो जाया करता है। अर्थात् भगवान और भगवदवतार का परिचायक भगवत्तत्त्वम् मूलक तत्त्वज्ञान में कहीं भी किसी भी प्रकार की गलती का न दिखाई देना और अपने अन्तर्गत जीवत्त भाव के सीमित क्षमता शक्ति के अन्तर्गत तत्त्वज्ञान के विराट रूप का पूर्णतः समावेश न हो सकने के कारण विश्वसनीयता का पूर्णतः न हो पाना, जिसके कारण आश्चर्य का होना स्वाभाविक हो जाया करता है। देखिए भगवदवतारी श्रीकृष्ण जी स्वयं क्या बता रहे हैं-----

आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्यवद्वदति तथैव चान्य:।        
आश्चर्यवच्चैनमन्य: श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ।।
(श्री मद्भगवद् गीता २/२९)
भावार्थ----कोई प्राप्त कर्त्ता ही इस परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् को आश्चर्य की भाँति देखता है और वैसे ही दूसरा कोई तत्त्वज्ञान दाता सत्पुरुष ही इसके तत्त्व का आश्चर्य की भाँति वर्णन करता है तथा दूसरे कोई भगवत् कृपा पत्र ही इसे आश्चर्य की भाँति सुनता है और कोई-कोई तो सुनकर भी इसको नहीं जान पाता ।
तुलसी दास जी ने भी श्री रामचरित मानस के अन्तर्गत उल्लिखित भी तो कर दिया है----

निर्गुण मार्ग सुलभ अति, सगुण न जानहिं कोय ।
अगुन-सगुन नाना चरित, सुनि मुनि मन भ्रम होय ।।
अर्थात् निर्गुण पन्थ जो पन्थ आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह के प्राप्ति का मार्ग है परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रम्ह के प्राप्ति का नहीं। यह तो बड़ा ही आसान होता है क्योंकि जीवात्मा (हँसो) का संबंध तो प्रायः सभी प्राणियों के साथ पतनोन्मुखी सोsहँ (जीवमय आत्मा) रूप में और उर्ध्वमुखी हँसो आत्मामय जीव रूप में होता ही रहता है। फिर भ्रम की गुंजाइश ही कहाँ? भ्रम तो सगुण साकार में होता हैं क्योंकि कहाँ तो सम्पूर्ण ब्रम्हाण्डों का अधिपति या मालिक खुदा-गॉड-भगवान और कहाँ एक साधारण मानवीय आचरण-व्यवहार (नर लीला) के रूप में गुजरता हुआ भगवदवतार ! ऐसी स्थिति में भ्रम अथवा आश्चर्य क्यों न हो !
भगवान और भगवदवतार के प्रति भ्रम व सन्देह का मूल कारण तो यह है कि एक तरफ तो भगवान अपनी परम गोपनीयता की मर्यादा को स्थापित करने और रखने हेतु नर शरीर के माध्यम से नर लीला होना-रहना चाहता है और अपने भक्तों में स्थिति-परिस्थिति और समयानुसार ज्ञान और भक्ति के अनुरूप बीच-बीच में अपने भगवत्ताको दिखाता और परिचय-पहचान कराता भी रहता है जिससे समाज में दोहरी स्थिति उत्पन्न हो जाया करती है----द्वेध स्थिति पैदा हो जाती है। इससे एक तरफ तो ज्ञानी और भक्त द्वारा ज्ञान और भक्ति से नर शरीर के अन्तर्गत, भगवान और भगवदवतार देखना और तद्नुसार ही व्यवहरित करना-होना शुरू हो जाता है और दूसरी तरफ भौतिक दृष्टि वाले जिन्हें उस भगवदवतारी के मात्र मानवीय आचरण-व्यवहार ही दिखाई देता रहता है और जिससे कि वे भगवान और भगवदवता के प्रति नाजानकारी और नासमझदारीवश नाना प्रकार के अनर्गल प्रलाप-विरोध और संघर्ष पर भी उतारू हो जाया करते हैं। उदाहरणार्थ देखें तो सही कि भगवान के साक्षात् पूर्णावतार भगवदवतार---(the Incarnation of GOD) रूप श्रीविष्णुजी-रामजी-कृष्णजी महाराज को भी लोग सहजता पूर्वक  ज्ञान और भक्ति से जानने-देखने और परखने-पहचानने के बजाय उनसे संघर्ष भी करने-कराने लगे थे। जैसे रावण जैसा महापण्डित, अधिकाधिक भौतिक विद्यायों का विशेषज्ञ तथा शंकर जी की भक्ति से प्राप्त दैवी शक्ति सम्पन्न होने रहने के बावजूद भी उसका श्री रामजी पर शंका-संदेह, विश्वास-अविश्वास का होना-रहना और उनसे और उनसे संघर्ष पर उतारू होकर नाश के मुँह में चला जाना, एक मजबूत प्रमाण है। कभी तो रावण कहता था-----
खरदूषण मो सम बलवंता, तिन्हें को मारहि बिनु भगवंता
और कभी कहता था कि— मरकट हीन करहुं महि जाइ, जियत धरहुं तापस दोउ भाई जबकि वे भगवदवतारी अपने भगवदवतार सम्बन्धी बातों को स्पष्टतः कहे-बतलाये थे,------

सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुशीला । अब कछु करब ललित नरलीला ।।

अवजानन्ति मां मूढा मानुषी तनुमाश्रितम् ।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ।।
(श्रीमद्भगवद् गीता ९/११)
अर्थात् मेरे परम भाव-प्रभाव को न जानने वाले मूढ़ लोग मनुष्य का शरीर धारण करने वाले मुझ सम्पूर्ण भूतों के महान् ईश्वर रूप परमेश्वर को तुच्छ समझते हैं अर्थात् अपनी योग-माया से संसार के उद्धार के लिए मनुष्य रूप में विचरते हुये मुझ परमेश्वर को साधारण मनुष्य मानते हैं।
इन उपर्युक्त प्रमाणों पर थोड़ा भी ध्यान देते हुये गहराई से देखा जाय तो निश्चित् रूप से यह समझ में आने लगेगा कि खुदा-गॉड-भगवान न तो कभी शरीर मात्र रहा है न वर्तमान में भी है और न भविष्य में होगा। हाँ, परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् श्रीविष्णु-राम-कृष्णजी महाराज वाली शरीरों के माध्यम से शरीर धारी अवश्य रहा है। वर्तमान में भी भगवदवतार शरीर मात्र ही नहीं बल्कि शरीर धारी परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् रूप ही है। इसमें ‘’तत्त्व’’ रूप तो वास्तव में भगवान का वास्तविक रूप’’ है जिसे निर्गुण-निराकार-अगुण आदि-आदि नामों से जाना जाता है और वह ‘’तत्त्व’’ जिस शरीर विशेष को धारण कर अपने लक्ष्यभूत लीला कार्य को सम्पादित करता है तथा जिस शरीर के माध्यम से तत्त्वज्ञान रूप भगवद्दज्ञान व भक्ति-सेवा आदि को प्रदान करता है, वह शरीर विशेष-सगुण-साकार आदि नामों से जाना-देखा-परखा पहचाना जाता है। यही कारण है कि वास्तव में भगवान को जानने-देखने वाला उसी को समझा जाता है जो तत्त्वज्ञान से युक्त हो, क्योंकि तत्त्वज्ञान प्राप्ति वाला ही भगवदवतार के दोनों रूपों को तत्त्व और शरीर दोनों को पृथक्-पृथक् रूप में जाना-देखा समझा-परखा होता है।
अज्ञानी जन तो तत्त्वज्ञान से युक्त होते नहीं हैं, वे उनके तात्त्विक रूप को तो जान-देख पते नहीं, मात्र भौतिक शरीर वाले क्रिया कलाप को ही जान-देख कर निर्णय लेने लगते हैं। होता भी यही है कि भगवान स्वयं नर-लीला की मर्यादा को रखते हेतु प्रायः मानवीय आचरण-व्यवहार से ही गुजरता है। इसलिए अज्ञानी अर्थात् भौतिक दृष्टि वालों को उनके मानवीय रूपों कहने-सुनने में पुष्टि भी मिल जाया करती है। मगर ज्ञानी भक्तों को ज्ञान-भक्ति के द्वारा जानने-देखने समझने-बूझने को मिला होता है इसलिए वे अवतारी को भगवान और भगवान का अवतार स्वीकार करने हेतु दिल और दिमाग से मजबूर होते हैं। अदाहरण और प्रमाण हेतु हनुमान और विभीषण को ज्ञान-भक्ति वाला और वशिष्ठ तथा रावण को अध्यात्मवेत्ता तथा कर्म वेत्ता महापंडित के रूप में देख सकते हैं। कभी तो रावण कहता था----
खरदूषण मो सम बलवंता, तिन्हें को मारहि बिनु भगवंता ।।

और वही रावण कभी यह भी कहने लगता था कि----

मरकट हीन करहु महि जाई । जियत ध्रहु तापस दोउ भाई ।।
जो नर रूप भूप सुत कोऊ । हरिहउ नारि जीत रण दोऊ ।
श्री रामचंद्र जी लंका-विजय प्राप्त कर अयोध्या में राज्याभिषेक के पश्चात् जब राज्य भार संभाले, और प्रजा को बुलवाकर जब उपदेश देने लगे, तो उनका उपदेश बजाय एक राजा और प्रजा के, एक सच्चे धर्मोपदेशक भगवदवतारी के ही रूप में होता देख करके वशिष्ठ जी अपने को रोक नहीं पाये, और हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगे। (जबकि वशिष्ठ जी अपने आपमें एक श्रेष्ठ अध्यात्मवेत्ता थे। योग-वाशिष्ठ्य उनके द्वारा विरचित ग्रन्थ भी है।) अध्यात्मवेत्ता को जब जब अपने से श्रेष्ठतर कोई दिखाई देना शुरू होता है, तो वे उसे भगवदवतार मानने हेतु दिल-दिमाग से मजबूर हो जाते हैं। ठीक यही स्थिति यहाँ पर गुरु वशिष्ठ जी की भगवदवतारी श्रीराम जी के प्रति हुई। वशिष्ठ जी अपने को रोक नहीं पाये थे, भाव विह्वल होकर प्रार्थना करते हुये बोल पड़े थे कि-------

राम सुनहु मुनि कह कर जोरी । कृपा सिंधु बिनती कछु मोरी ।
देखि देखि आचरन तुम्हारा । होत मोह मम हृदय अपारा ।।

इन उपर्युक्त प्रमाणों को देखने से आप पाठक बन्धुओं को सहज ही समझ में आ जाना चाहिए कि सम्पूर्ण भौतिक विषयों का विशेषज्ञ यानी महापंडित रावण भी श्रीराम जी के भगवत्ता को सपष्टतः स्वीकार नहीं कर पाया। सन्देह की अवस्था में ही रहा और वशिष्ठ जी भी ब्रम्हाजी के पुत्र तथा सप्त ऋषियों में से एक ब्रम्हर्षि भी थे, साथ ही साथ एक उपदेशक व अध्यात्मवेत्ता भी थे, फिर भी श्रीराम जी के भगवत्ता के प्रति मोहित (भ्रमित) हो रहे थे क्योंकि भगवदवतार की भगवत्ता और आचरण-व्यवहार दोनों बिल्कुल ही भिन्न होता है। भगवत्ता तो सम्पूर्ण ब्रम्हाण्ड के मालिक के रूप में है और आचरण-व्यवहार एक साधारण नर जैसा। भगवदवतार के प्रति भ्रम-सन्देह का कारण यही द्वैध स्थिति ही है। 

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