शिवोsहँ-सोsहँ-हँसो भी भगवान् नहीं

भ्रामक शिवोsहँ-पतनोन्मुखी सोsहँ-उर्ध्वमुखी हँसो भी भगवान् नहीं

शिवोsहँ-सोsहँ-हँसो प्रेमी बंधुओं से मुझ सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस का साग्रह निवेदन है कि आप सर्वप्रथम अपने विषय में सोचें-समझें कि वास्तव में आपका लक्ष्य क्या हैं? पुनः एक बार दोहरा दूँ कि आप जरा सा भी तो सोचें कि आप किस लक्ष्य को लेकर के किसी सन्त-महात्मा अथवा गुरु और सद्गुरु के पास गए-आये थे? क्या गुरुजी और उन तथाकथित सद्गुरु जी के धन-दौलत-वैभव को देखने के लिए अथवा उनके अधिकाधिक जन संख्या को देखने के लिए अथवा उनके अधिकाधिक जनसंख्या अनुयायियों के संख्या को देखने के लिए अथवा उनके सैकड़ों-हजारों विकासशील आश्रमों को देखने के लिए? अर्थात् क्या मैं यह मान लूँ कि आप अपने गुरु और उन तथाकथित सद्गुरुजी के अधिकाधिक धन-जन और आश्रमों मात्र को देखने के लिए ही गए थे? भगवत् प्राप्ति, भगवद् दर्शन, पाप मुक्ति और मुक्ति और अमरता के साक्षात् बोध की प्राप्ति हेतु नहीं गए थे? अर्थात् भगवत् प्राप्ति तथा मुक्ति और अमरता आपका लक्ष्य नहीं था? गुरुत्व के प्रति मिथ्या अहंकार से क्या आपको भगवत् प्राप्ति तथा मुक्ति-अमरता के बोध की प्राप्ति हो जाएगी? जरा अपने दिल और दिमाग से तो पूछिए। मैं तो आपसे बार-बार यही कहूँगा कि आप अपने गुरुत्व के प्रति मिथ्या अहंकार और मिथ्या गर्वोक्ति से बचते हुये भगवत् प्राप्ति तथा मुक्ति और अमरता के साक्षात् बोध के प्रति अपने दिल-दिमाग को केन्द्रित क्यों नहीं करते ?

आप बन्धुओं से मेरा पुनः आग्रह है कि आप इस बात को क्यों नहीं महसूस करते कि मैं सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस भी गुरुत्व-सद्गुरुत्व से गुजर रहा हूँ। मेरे पास भी कमोवेश शिष्य और अनुयायी हैं। मेरी ये बातें मेरे प्रति भी मेरे शिष्यों द्वारा लागू की जा सकती हैं। आप गुरुत्व में क्यों इतना जकड़ गए हैं कि जिससे आप अपने लक्ष्य रूप भगवत् प्राप्ति और मोक्ष रूप मुक्ति-अमरता से ही वंचित होकर पतन और विनाश को प्राप्त हो जाय। आप अपने दिल-दिमाग से पुनः एक बार पूछें कि लक्ष्य आपका मात्र गुरु था या अथवा भगवान और मोक्ष ? अरे भाई ! गुरु ज्ञान के लिए और ज्ञान भगवान पाने – पहचानने के लिए और भगवान मोक्ष पाने के लिए ही तो किया जाता है। यदि गुरु से ऐसा ज्ञान ही नहीं मिला जिससे भगवान ही नहीं मिला, तथा मुक्ति अमरता का साक्षात् बोध ही नहीं प्राप्त हुआ, तो फिर गुरु से और क्या प्राप्त होगा? आखिर आपके गुरु अथवा सद्गुरुजी महाराज और दे ही क्या सकते हैं? आप गुरुत्व के विषय में इन निम्नलिखित मन्त्र और श्लोकों को बार-बार पढ़ने और कहने में लगे हुये हैं। थोड़ा इनके भाव को भी तो समझने की कोशिश कीजिये। धार्मिक मन्त्र-श्लोकों का केवल अर्थ ही पर्याप्त नहीं होता है और न तो अर्थ मात्र की प्रधानता ही रहती है। पर्याप्तता और प्रधानता भावार्थ की होती है।
गुरुर्ब्रम्हा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वर: ।
गुरुर्साक्षात् परमब्रम्ह तस्मै श्रीगुरुवे नमः ॥
अखण्ड मण्डलकारं व्याप्तं येन चराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नमः ।।
ध्यान मूलं गुरु मूर्ति, पुजा मूलं गुरु पादुका ।
मन्त्र मूलं गुरु वाक्यं, मोक्ष मूलं गुरु कृपा ।।    
इन मन्त्र-श्लोकों के अर्थ मात्र में जो आप लटके-भटके हैं, यह ठीक नहीं है। ठीक तो तब होता कि इसके अर्थ के साथ साथ इसके भावार्थ को भी जानने-समझने का प्रयास करते। ये मन्त्र-श्लोक सभी गुरुओं पर लागू नहीं होते। ये सब के सब मात्र सद्गुरु के लिए हैं। यहाँ यदि आप ऐसा अर्थ लगाना शुरू कर दें कि आप सद्गुरु शब्द मात्र खींच-तान कर रहे हैं, यह है गुरु के लिए जो किसी भी गुरु या सभी गुरुओं पर लागू हो सकता है। तो जरा अपने दिल-दिमाग से पूछिये कि किसी भी गुरु अथवा सभी गुरुओं को ब्रम्हा, विष्णु व महेश सहित साक्षात् परमब्रम्ह-परमेश्वर का ही रूप मान लिया जाय? आपके दृष्टि से यदि मान भी लेना हो तो शिक्षा अध्ययन कराने वाले शिक्षक भी तो गुरु ही हैं, कान फूँकने वाले वाले भी तो गुरु ही हैं, पुरोहित भी तो एक प्रकार के गुरु होते हैं, जनेऊ करा ने वाले भी तो एक प्रकार के गुरु होते हैं! क्या इन गुरुजनों को भी ब्रम्हा-विष्णु-महेश तथा साक्षात् परमब्रम्ह-परमेश्वर का रूप स्वीकार कर लिया जाय? यदि हाँ तो भगवत् खोज और भगवत् प्राप्ति की आवश्यकता हो खतम हो जाती है और यदि नहीं तो मात्र योग-साधना अथवा आध्यात्मिक क्रिया कराने वाले गुरुजन पर ही यह कहाँ लागू हो जायेगा? अर्थात् नहीं लागू हो सकता।
हाँ, यहाँ पर आप एक और पेश कर सकते है कि---गु माने अन्धकार और रु माने प्रकाश, अर्थात् अन्धकार से निकालकर प्रकाश में ले जाने वाला गुरु है। अर्थात् हम गुरुजन ध्यान के द्वारा प्रकाश दिखा दिये कि गुरु हो गये! यह अक्षम-अधूरे गुरुओं द्वारा देय गुरु की परिभाषा है अर्थात् अब हम ब्रम्हा-विष्णु-महेश और साक्षात् परमब्रम्ह-परमेश्वर हो गए? ऐसे उपदेशक अक्षम-अधूरे मिथ्याहंकारी गुरुओं के जाल में फँसने-भटकने और लटकने से सदा ही अपने को बचाये रखने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि गुरु की परिभाषा जो उपर्युक्त दी गयी है वह न तो पर्याप्त है और न सही ही। जिन्हें पूर्ण और पूर्णत्त्व का ज्ञान नहीं है, मात्र उनका ही यह विधान है। पूर्ण और पूर्णत्त्व का विधि-विधान तो तीन सूत्रात्मक उपलब्धियों पर आधारित है जो अग्रलिखित है------

१.      असदो मा सद्गमय ! (असत्य नहीं, सत्य की ओर चलें)
२.      तमसो मा ज्योतिर्गमय !! (अन्धकार नहीं, ज्योति की ओर चलें)
३.      मृत्योर्माsमृतं गमय !!! (मृत्यु नहीं, अमरता की ओर चलें)
जिस गुरु के ज्ञान में सहज ही इन तीनों ( (क) असत्य क्या है और कैसा होता है? सत्य क्या है और कैसा होता है? (ख) मोह रूपी अन्धकार क्या है और कैसा होता है; (ग) मृत्यु क्या है और कैसी होती है? अमरत्व क्या है और कैसा होता है?) की उपलब्धि होती हुई तत्काल ही अनुभूति और साक्षात् बोध सहित साक्षात् देखने को प्राप्त नहीं होता है तो तो उस गुरु का ज्ञान ही सत्य और पूर्ण नहीं है जबकि ज्ञान सदा ही सत्य और पूर्ण ना हो, वह निश्चय ही असत्य और अपूर्ण ही होगा। पुनः असत्य और अपूर्ण होने-रहने वाला गुरु गुरु या सद्गुरु हो ही नहीं सकता! अर्थात् गुरु-सद्गुरु वह है जो ज्ञानतत्त्वज्ञान दे और ज्ञान वह है जिसमें तत्काल ही संसार-शरीर-जीव-ईश्वर और परमेश्वर की यथार्थतः जानकारी, साक्षात् दर्शन और बात-चीत करते कराते हुये स्पष्टतः परिचय-पहचान पृथक्-पृथक् रूप में तत्काल ही हो जाया करता हो। यदि ऐसा नहीं होता है तो ज्ञान गलत ह और जब ज्ञान ही गलत होगा तब गुरु-सद्गुरु सही कैसे हो सकता है अर्थात् वह सही नहीं हो सकता और जो सहीं नहीं, वह गुरु-सद्गुरु ही नहीं। फिर वह साक्षात् परमब्रम्ह या परमात्मा कैसे हो सकता है? अर्थात् नहीं हो सकता।

इन उपर्युक्त तीन सूत्रों का संकेत तीन प्रकार की धारणाओं के अपने-अपने अभीष्ट उपलब्धियों से है। जैसे------
१.पहला सूत्र ‘’असदो मा सद्गमय !’’ असत्य नहीं, सत्य की ओर चलें कर्मकाण्ड का अभीष्ट लक्ष्य है जिसके अन्तर्गत कर्मप्रधान सांसारिक जीवन जीने वाले के लिए सद्गुरु जो हैं, अपने शिष्य को जगन्मिथ्या झूठा जगत को यथार्थतः दिखला देते हैं। अर्थात् सद्गुरु वह है जो सांसारिक शरीर से जीव को निदिध्यासन की अवस्था में बाहर निकाल कर जीव की दृष्टि यानी सूक्ष्म दृष्टि द्वारा यह स्पष्टतः जना-दिखा दे कि संसार और शरीर दोनों ही बिल्कुल ही मिथ्या यानी झूठ हैं। इसलिए आप हम सभी को चाहिए कि इस मिथ्या जगत् को अपने भौतिक जीवन में त्याग भाव से देखते हुये अपने को ईश्वर और परमेश्वर को ओर शरण-ग्रहण भाव में अग्रसर करें अर्थात् सद्गुरु अपने अनुयायियों को जनाते-दिखलाते हुये यह समझावें और साक्षात् बोधित भी करावें कि भौतिक जीवन में मिथ्यात्त्व (असत्य) को सदा त्यागते हुये और सत्यत्त्व का शरण-ग्रहण के भाव में लेते हुये आगे बढ़ने का प्रयास करते रहना चाहिए ताकि जीव अपने पतनोन्मुखी (आत्मा से जीव से शरीर से संसार) रूप को त्यागकर उर्ध्वमुखी (जीव से आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह-शिव- और आत्मा से परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रम्ह-भगवान्) रूप को अपना लें। अर्थात् अपने जीवन में उसे सदा ही असत्य त्याग और सत्य ग्रहण के भाव रूप में ही अपने कदमों को अग्रसर बनाना होना-रहना चाहिए। यही सद्गुरु का अपने शिष्यों के प्रति पहला उपदेश होता है।

२. उपर्युक्त पहले सूत्रात्मक उपदेश के पश्चात् सद्गुरु का दूसरा उपदेश तमसो मा ज्योतिर्गमय !! (मोह रूपी अन्धकार नहीं, प्रकाश की ओर चलें) की होती है। अर्थात् सद्गुरु जो अपने शिष्यों-अनुयायियों को शरीर सहित जड़-जगत् रूप असत्य रूप झूठ एवं अन्धकार से बहिर्मुखी इन्द्रियों को आभ्यांतर मुखी बनाते हुए अर्थात् जीव को शरीर से परिवार से संसार की तरफ पतन और विनाश रूपी झूठ एवं अन्धकार से मोड़कर आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह-नूर-सोल-स्पिरिट-सः ज्योति यानी ज्योतिर्मय शिव से जोड़ देना सद्गुरु का दूसरा क्रियात्मक उपदेश होना चाहिए। आध्यात्मिक गुरुजनों और तथाकथित सद्गुरुओं के गुरु की परिभाषा- गु माने अन्धकार और रु माने प्रकाश अर्थात् जो अन्धकार नहीं, प्रकाश की चलें --- उपर्युक्त तीन प्रधान सूत्रात्मक धारणाओं के बीच वाली एकांगी सूत्र पर ही आधारित है अथवा यह इस एकांगी सूत्र का ही प्रयौगिक रूप है। यह एकांगी सूत्र सम्पूर्ण का एक अंश मात्र है।
आध्यात्मिक गुरुजनों के गुरु की उपर्युक्त परिभाषा एक अंशमात्र वाला होने के कारण इसमें न तो कोई भौतिक जीवन में असत्य और सत्य से सम्बंधित कोई दिशा निर्देश होता रहता है और न ही इसमें भगवद् प्राप्ति तथा मुक्ति और अमरता के साक्षात् बोध से सम्बंधित कोई स्पष्ट प्रावधान होता है। अर्थात् अध्यात्म इस बीच वाले सूत्र तमसो मा ज्योतिर्गमय मात्र का ही प्रयौगिक विधान है जो मृत्योर्माsमृतं गमय रूप जीवन के चरम और परम उपलब्धि वाले मुक्ति और अमरता के बोध प्राप्ति से वंचित तो रहता ही है, मानव जीवन में दिशा-निर्देश वाले सूत्र असतो मा सद्गमय से भी वंचित होता या रहता या करा देता है। यही नतीजा है कि अध्यात्म को पूर्ण ज्ञान रूप तत्त्वज्ञान का एक अंश मात्र ही कहा जाता है। क्योंकि पूर्णज्ञान तो वह होगा जिसमें सभी सूत्रों का ही प्रयौगिक उपलब्धि हो। यही नतीजा है कि कोई अध्यात्मवेत्ता चाहे जितना उच्च कोटी का ही क्यों न हो, मगर है वह अपूर्ण और अधूरा ही --- एकांगी और एक अंश मात्र वाला ही रहता है जिसका परिणाम है कि अध्यात्म का अभीष्ट और अन्तिम उपलब्धि आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह-सः ज्योति भ्रमवश शिवोsहं-पतनोन्मुखी सोsहँस-हँसो ज्योति भी अपूर्ण अधूरा और परमेश्वर का एक अंशमात्र ही होता है। यही कारण है कि सोsहँ-शिवोsहँ-ज्योति भी खुदा-गॉड-भगवान नहीं बल्कि खुदा-गॉड-भगवान का एक अंश मात्र ही होता है।

3.      सद्गुरु का तीसरा और अन्तिम उपदेश मानव जीवन के अथवा जीव के चरम और परम उपलब्धि रूप तीसरा सूत्र--- मृत्योर्माsमृतं गमय !!! (मृत्यु नहीं, अमरता की ओर चलें।) की प्राप्ति साक्षात् बोधगम्य रूप में होना चाहिए। यह तत्त्वज्ञान के बगैर सम्भव ही नहीं और तत्त्वज्ञान भगवान के साक्षात् अवतरण रूप भगवदवतार के अतिरिक्त किसी भी अन्य शरीर से दिया जाना सम्भव ही नहीं ! योगी-यति-ऋषि-महर्षि-आलिम-औलिया-पीर-पैगम्बर-महात्मा-सन्त आदि तथा देवी-देवता तथा फरिश्तों के वश की बात ही नहीं कि वह भगवत् प्राप्ति तथा मुक्ति और अमरता का साक्षात् बोध कराने वाला तत्त्वज्ञान को प्राप्त करा सकें। तत्त्वज्ञान तो एकमात्र भगवान और भगवदवतारी हेतु सदा ही आरक्षित और सुरक्षित होता-रहता है।

आप पाठक जिज्ञासु बन्धु ! थोड़ा भी सोचें-विचारें और जानने-समझने का प्रयास करें कि मानव जीवन का चरम और परम लक्ष्य ज्योति दर्शन मात्र ही है अथवा भगवत् प्राप्ति रूप मुक्ति-अमरता का साक्षात् बोध भी? आप थोड़ा भी अपने को देखिए कि आप को आपके गुरुजन क्या प्रायौयिक रूप में पृथक्-पृथक् रूप में उपर्युक्त तीनों सूत्रात्मक उपलब्धियों को उपलब्ध करा पाये हैं। इसके जबाव में यदि आप को ऐसा लगे कि मुझे पृथक्-पृथक् रूप में प्राप्त हुयी है तो मैं सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानंद जी परमहंस चुनौती देते हुये यह आपसे कह रहा हूँ कि धरती पर किसी भी तथाकथित गुरु-सद्गुरु में इन तीनों को उपलब्ध कराने की क्षमता ही नहीं है फिर वह उपलब्ध कहाँ से करा सकता है? और जब कोई उपलब्ध करा ही नहीं सकता तो आप को उपलब्ध हो कहाँ से गया? इस बात में आपको अहंकार भले ही महसूस हो, मगर वास्तविकता और सत्यता यही हैं कि वर्तमान में पूरे भू-मण्डल पर ही सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस (सदानन्द तत्त्वज्ञान परिषद्) के सिवाय किसी के पास भी तत्त्वज्ञान रूप भगवद्ज्ञान रूप पूर्णज्ञान नहीं है, तो मैं कहूँ क्या? बार-बार मैं कह रहा हूँ कि आपको अपने उपलब्धि के सत्यता पर स्वाभिमान है तो उपस्थित होकर जाँच-परीक्षण क्यों न कर-करा लेते? इससे श्रेष्ठत्त्व से युक्त है। जाँच-परख में हमारे यहाँ किसी प्रकार का शुल्क-शर्त आदि तो नहीं है। हाँ, प्रायौयिक जाँच के पश्चात् सत्यत्त्व और श्रेष्ठत्त्व से युक्त जो हो, उसके प्रति दूसरे को समर्पित होते हुये शरणागत हो जाना होगा। सब भगवत् कृपा पर आधारित।

यह बात भी सत्य ही है कि आध्यात्मिक गुरुजन वृन्द आप लोगों को मान्यता प्राप्त सद्ग्रन्थों (वेद-उपनिषद्-रामायण-गीता-पुराण-बाइबिल-कुरान-गुरुग्रन्थ साहब) के उन-उन मंत्रों-श्लोकों, दोहा-चौपाइयों, आयतों-वचनों आदि को आप के समक्ष प्रमाण में प्रस्तुत कर-करा देते हैं जिनमें उनके बातों की पुष्टि होती है और जिसे मानने के लिए आप मजबूर हो जाते हैं। ये बातें तो ठीक हैं, मगर उनको सही, गुरु-सद्गुरु तो तब समझा जाता जब उन्हीं सद्ग्रन्थों के उन-उन मंत्रों-श्लोकों, दोहा-चौपाइयों, आयतों-वचनों को भी ये आपके समक्ष प्रस्तुत करते जिन-जिन में इनके सिद्धान्त-विधान को अधूरा और निम्न बताया गया है-----उन्हें ये क्यों छिपा लेते हैं? अथवा वे सब इन गुरुजन और सद्गुरुजन को दिखलाई ही नहीं देते? आखिर मैं क्या समझूँ? जैसे ये लोग निम्नलिखित मन्त्र आपके समक्ष प्रस्तुत करते हैं----

नवद्वारे पुरे देही हँसो लेलायते बहि: ।
वशी सर्वस्य लोकस्य स्थावरस्य चरस्य च।।
पदार्थ-----सर्वस्य=सम्पूर्ण; स्थावरस्य=स्थावर; च= और; चरस्य= जंगम; लोकस्यवशी=जगत् को वश में रखने वाला; हँस= वह प्रकाशमय परमेश्वर (यहाँ हँस को ही प्रकाशमय परमेश्वर कह दिया गया है जबकि प्रकाशमय हंस जीवात्मा मात्र ही  होता है, परमात्मा-परमेश्वर नहीं है। यह जीवात्मा है और परमतत्त्वम् रूप परमेश्वर से प्रकट और पृथक् होने के कारण उसका पुत्र है। वास्तव में वह परमतत्त्वम् ही परमेश्वर है, प्रकाशमय हंस परमेश्वर या परमात्मा नहीं है। ऐसा आगे आने वाले मंत्रों में देखने को मिलेगा); नवद्वारे=नव द्वार वाले; पुरे=शरीर रूपी नगर में; देही=अंतर्यामी रूप से ह्रदय में स्थित देही है (तथा वही); बहि:=बाह्य जगत् में भी लेलायते=लीला कर रहा है।

व्याख्या------सम्पूर्ण स्थावर और जंगम जीवों के समुदाय रूप इस जगत् को अपने वश में रखने वाले वे प्रकाशमय परमेश्वर (यहाँ हंस को ही प्रकाशमय परमेश्वर कह दिया गया है जबकि प्रकाशमय हंस जीवात्मा मात्र ही है, परमात्मा-परमेश्वर नहीं है। यह विशुद्धतः ईश्वर भी नहीं है। यह प्रकाशमय हंस जीव का आत्मामय रूप अर्थात् जीवात्मा है और परमतत्त्वम् रूप परमेश्वर या परमात्मा से प्रकट और पृथक् होने के कारण उसका पुत्र भी है। वास्तव में वह परमतत्त्वम् ही परमेश्वर है, प्रकाशमय हंस परमेश्वर नहीं है।) दो आंख, दो कान, दो नासिका, एक मुख, एक गुदा और एक उपस्थ-----इस प्रकार नौ दरवाजों वाले मनुष्य शरीर रूप नगर में अंतर्यामी रूप से स्थित है और वे ही इस बाह्य जगत् में भी लीला कर रहे हैं।

एको हँसो भुवनस्यास्य मध्ये, स एवाग्नि: सलिले सन्निविष्ट:।
तमेव विदित्वाति मृत्त्युमेति, नान्यः पंथा विद्यतेsयनाय ।।
(श्वेताश्वतरोपनिषद् ६/१५)
पदार्थ---अस्य=इस; भुवनस्य=ब्रम्हाण्ड के; मध्ये=बीच में (जो); एक:=एक; हँस=प्रकाश रूप परमात्मा (यहाँ हँस को ही प्रकाशमय परमेश्वर कह दिया गया है) जबकि प्रकाशमय हंस जीवात्मा मात्र ही है, परमात्मा-परमेश्वर नहीं है। यह विशुद्धतः आत्मा-ईश्वर-भी नहीं है। यह प्रकाशमय हंस-जीव का आत्मामय रूप अर्थात् जीवात्मा है और परमतत्त्वम् रूप परमात्मा-परमेश्वर से प्रकट और पृथक् होने के कारण उसका पुत्र भी है। वास्तव में वह परमतत्त्वम् ही परमेश्वर है, प्रकाशमय हंस परमेश्वर नहीं है। ऐसा आगे आने वाले मन्त्र में देखने को मिलेगा); सः एव=वही; सलिले=जल में; सन्निविष्ट:=स्थित; अग्नि=अग्नि है तम्=उसे; विदित्वा=जानकर; एव=ही (मनुष्य); मृत्युम् इति=मृत्युरूप संसार समुद्र से सर्वथा पार हो जाता है अयनाय=दिव्य परम धाम की प्राप्ति के लिए; अन्य=दूसरा; पंथामार्ग; न=नहीं विद्यते=है।

व्याख्या-----इस ब्रह्माण्ड में जो एक प्रकाश रूप परमब्रम्ह परमेश्वर (यहाँ भी हंस: को ही प्रकाशमय परमेश्वर कह दिया गया है जबकि प्रकाशमय हंस जीवात्मा मात्र ही होता है, परमात्मा-परमेश्वर नहीं है प्रकाशमय हंस परमतत्त्वम् रूप परमेश्वर से प्रकट और पृथक् होता रहता है। वास्तव में वह परमतत्त्वम् रूप ही परमेश्वर है। यः प्रकाशमय हंस परमेश्वर नहीं है। ऐसा आगे के मंत्रों में देखने को मिलेगा।) है, वे ही जल में प्रविष्ट अग्नि है। यद्यपि कि शीतल स्वभाव युक्त जल में उष्ण स्वभाव वाले अग्नि का होना साधारण दृष्टि से समझ में नहीं आता, क्योंकि दोनों का स्वभाव परस्पर विरुद्ध है, तथापि उसके रहस्य को जानने वाले वैज्ञानिकों को यः प्रत्यक्ष दिखता है। अतः वे उसी जल में से बिजली के रूप में उस अग्नि तत्त्व को निकाल कर नाना प्रकार के कार्यों का साधन करते हैं। शास्त्रों में भी जगह-जगह यह बात कही गयी है कि समुद्र में बड़वानल अग्नि है। अपने कार्य में कारण व्याप्त रहता है-----इस न्याय से भी जल तत्त्व का कारण होने से अग्नि तत्त्व का व्याप्त होना उचित ही है। किन्तु इस रहस्य को न जानने वाला जल में स्थित अग्नि को नहीं देख पाता। इसी प्रकार आत्मा इस जड़ जगत् से स्वभावत: सर्वथा विलक्षण हैं, क्योंकि वे चेतन, आत्मस्वरूप और सर्वज्ञ हैं तथा इस जड़ जगत् के कारण और ज्ञेय है। इस प्रकार जगत् से विरुद्ध दिखने के कारण साधारण दृष्टि से यह बात समझ में नहीं आती कि वे इसमें किस प्रकार व्याप्त है और किस प्रकार इसके कारण हैं। परन्तु जो उस परमब्रम्ह की अचिंत्य अद्भुत शक्ति के रहस्य को समझते हैं, उनको वे प्रत्यक्षवत् सर्वत्रा परिपूर्ण और सबके एक मात्र कारण प्रतीत होते हैं, उनको वे प्रत्यक्षवत् सर्वत्रा परिपूर्ण और सबके एक मात्र कारण प्रतीत होते हैं। उन सर्वशक्तिमान सर्वाधार परमात्मा को जानकर ही मनुष्य इस संसार समुद्र से पार हो सकता है----सदा के लिए जन्म-मरण से सर्वदा छूट सकता है। उनके दिव्य परमधाम के प्राप्ति के लिए दूसरा कोई मार्ग नहीं है। अतः हमे उन परमात्मा का जिज्ञासु होकर उन्हें जानने की चेष्टा में लग जाना चाहिए।
उपरोक्त मंत्रों को तो ये आपके समक्ष रखते है परन्तु अधोलिखित मंत्रों को ये आपके समक्ष क्यों नहीं प्रस्तुत करते या रखते हैं? जबकि ये मन्त्र भी उसी (श्वेता॰) उपनिषद् के हैं।

सर्वाजीवे सर्वसंस्थे वृहन्ते अस्मिन् हँसो भ्राम्यते ब्रम्हचक्रे ।
पृथगात्मानं प्रेरतारं च मत्त्वा जुष्टस्ततस्तेनामृत्त्वमेति ।।
(श्वेताश्वतरोपनिषद् १/६)
पदार्थ---अस्मिन्=इसः; सर्वाजीवे=सबके जीविका रूप; सर्वसंस्थे=सबके आश्रय भूत; बृहन्ते=विस्तृत; ब्रम्हचक्रे=ब्रम्ह्चक्र रूप संसार चक्र में; हंस= जीवात्मा (हँ=जीव, सः=आत्मा); भ्राम्यते= घुमाया जाता है; (सः)= वह; आत्मानम्=अपने आपका च=और प्रेरितारम्=सबके प्रेरक परमात्मा को; पृथक्=अलग-अलग; मत्वा=जानकर; ततः=उसके बाद; तेन=उस परमात्मा से; जुष्ट=स्वीकृत होकर; अमृत्तत्त्वम्=अमृत तत्त्वम् को एति=प्राप्त हो जाता है।

व्याख्या----जो सबके जीवन निर्वाह का हेतु है और जो समस्त प्राणियों का आश्रय है, ऐसे इस जगत् रूप ब्रम्ह चक्र में परमब्रम्ह परमात्मा द्वारा संचालित तथा परमात्मा के ही विराट शरीर रूप संसार चक्र में वह जीवात्मा (हँसो) अपने कर्मों के अनुसार उन परमात्मा द्वारा घुमाया जाता है। जब तक यह जीवात्मा (हँसो) इसके संचालक (परमात्मा) को जानकर उनका कृपा पात्र नहीं बन जाता, अपने को उनका प्रिय नहीं बना लेता, तब तक इस जीवात्मा (हँसो) अपने को व सबके प्रेरक परमात्मा को भली-भाँति पृथक्-पृथक् समझ लेता है कि उन्हीं के घुमाने से मैं इस संसार चक्र में घूम रहा हूँ और उन्हीं की कृपा से छूट सकता हूँ, तब वह उन परमेश्वर का प्रिय बनकर उनके द्वारा स्वीकार कर लिया जाता हैं। (कठोपनिषद् १/२/२३ और मुण्ड्कोपनिषद् ३/२/३ में भी इसी प्रकार का वर्णन है।) फिर तो वह अमृत को प्राप्त हो जाता है,। जन्म-मरण रूप संसार चक्र से सदा के लिए छूट जाता है। परमशान्ति एवं सनातन परमधाम को प्राप्त कर लेता है।

श्वेताश्वतरोपनिषद् के उपर्युक्त मन्त्र में श्वेता। १/६ में हँस रूप जीवात्मा हँ=जीव, सः=आत्मा को पृथक् अस्तित्त्व वाले परमात्मा परमेश्वर-परमब्रम्ह द्वारा इस संसार चक्र रूप भाव सागर में नचाये-घुमाये जाने की बात कही गयी है किन्तु ये तथाकथित गुरु-सद्गुरु जी लोग उपर्युक्त मन्त्र श्वेता. १/६ को आपके समक्ष प्रस्तुत न करके श्वेताश्वतरोपनिषद् के दिये गए मन्त्र श्वेता ६/१५ को प्रस्तुत करते हैं और उसमें हंस को प्रकाश स्वरूप जीवात्मा न कहकर परमात्मा ही कहने लगते हैं। यह उनके मिथ्याज्ञान का परिचायक है। आप पाठक बन्धु स्वयं ही सोचें कि उपर्युक्त मन्त्र में हंस रूप जीवात्मा को परमात्मा द्वारा नचाये जाने की बात की गयी है, फिर हँस को ही परमात्मा कैसे कहा जा सकता है?

तमीश्वराणाम् परमं महेश्वरं तं देवतानां परमं च दैवतम्।
पतिम् पतीनां परमं परस्ताद् विदाम देवं भुवनेशमीड्यम्।।
(श्वेताश्वतरोपनिषद् ६/७)
व्याख्या----हे परमब्रम्ह पुरुषोत्तम समस्त ईश्वरों के भी महान ईश्वर अर्थात् परमेश्वर रूप महान शासक है, अर्थात् ये सब भी उन परमेश्वर के अधीन रहकर जगत् का शासन करते हैं। वे ही समस्त देवताओं के भी परम आराध्य देव हैं। उन स्तुति करने योग्य परमदेव-परमात्मा को हम लोग सबसे ब्रम्हाण्डों के स्वामी हैं। उन स्तुति करने योग्य परमदेव-परमात्मा को हम लोग सबसे परे जानते हैं। उनसे श्रेष्ठ और कोई नहीं है। वे ही इस जगत् के सर्वश्रेष्ठ कारण हैं और वे सर्वरूप होकर भी सबसे सर्वथा पृथक् हैं।

यदातमस्तन्न दिवा न रात्रिर्न सन्न चासंछिव एव केवलः ।
तदक्षरं तत्सवितुर्वरेण्यं प्रज्ञा च तस्मात् प्रसृता पुराणी ।।
(श्वेताश्वतरोपनिषद् ४/१८)
व्याख्या----जिस समय अज्ञान रूप अन्धकार का सर्वथा अभाव हो जाता है, उस समय प्रत्यक्ष होने वाला तत्त्व न दिन है, न रात है अर्थात् उसे न तो दिन की भाँति प्रकाशमय कहा जा सकता है और न रात की भाँति अंधकारमय ही, क्योंकि वह इन दोनों से सर्वथा विलक्षण है। वहाँ ज्ञान-अज्ञान के भेद की कल्पना के लिए स्थान नहीं है। वह न सत् है और न असत् हैं-उसे न तो सत् कहना बंनता है न असत् ही, क्योंकि वह सत् और असत् नाम से समझे जाने वाले पदार्थों से सर्वथा विलक्षण है। एक मात्र कल्याण रूप ही वह तत्त्व है। वे सर्वथा अविनाशी हैं। सूर्य आदि समस्त देवताओं के उपास्य देव हैं। उन्हीं से यह सदा से चला आता हुआ अनादि ज्ञान विस्तारित हुआ है अर्थात् परमात्मा को जानने और पाने का विधान अधिकारियों को तत्त्ववेत्ताओं से प्राप्त होता हुआ चला आ रहा है।
उपरोक्त मंत्रों से यह विदित है कि तत्त्व रूप परमात्मा सर्वथा विलक्षण होते हुये न तो प्रकाश जैसा है, न प्रकाश ही है और न अन्धकार जैसा ही है तथा न अन्धकार ही है अपितु अन्धकार-प्रकाश अथवा असत्-सत् दोनों से विलक्षण और भिन्न है।
श्वेताश्वतरोपनिषद् के एक और मन्त्र को देखिए जिसमें उस परमसत्ता-शक्ति रूप परमशासक रूप परमात्मा-परमेश्वर को अविनाशी आत्मा-ईश्वर से भी सर्वथा पृथक् एवं विलक्षण बताया गया है-----

द्वे अक्षरे ब्रम्हपरे त्वनंते, विद्याविद्ये निहिते यत्र गूढे ।
क्षर त्वविद्या ह्यमृतं तु विद्या, विद्याविद्ये ईशते यस्तु सोsन्य:।।
(श्वेताश्वतरोपनिषद् ५/१)
व्याख्या----जो परमेश्वर ब्रम्ह से भी अत्यंत श्रेष्ठ है; अपनी माया के पर्दे में छिपा हुआ है, सीमा रहित और अविनाशी है अर्थात् जो देश-काल से सर्वथा अतीत है तथा जिनका कभी किसी प्रकार से विनाश नहीं हो सकता तथा जिन परमात्मा में अविद्या और विद्या----दोनों विद्यमान हैं, वे ही पूर्णब्रम्ह पुरुषोत्तम हैं। इस मन्त्र में परिवर्तनशील घटने-बढ़ने वाले और उत्पत्ति विनाशशील-क्षरतत्त्व को तो अविद्या नां से कहा गया है, क्योंकि वह जड़ है, उसमें विद्या का सर्वथा अभाव है। उससे भिन्न जो जन्म-मृत्यु से रहित है, जो घटता-बढ़ता नहीं, वह अविनाशी कूटस्थ (जीवात्मा) विद्या के नाम से कहा गया है, क्योंकि वह चेतन है, विज्ञानमय हैं। उपनिषदों में जगह-जगह उसका विज्ञानात्मा के नाम से वर्णन आया है। यहाँ श्रुति में स्वयं ही विद्या और अविद्या की परिभाषा कर दी गयी है। अर्थान्तर की कल्पना अनावश्यक है। जो इस अविद्या नाम से कहे जाने वाले क्षर तथा विद्या नाम से कहे जाने वाले अक्षर----दोनों पर शासन करते हैं, दोनों के स्वामी हैं, दोनों जिनकी प्रकृतियाँ अथवा शक्तियाँ हैं, वे परमेश्वर इन दोनों से अन्य----सर्वथा विलक्षण हैं।

अब गीता के कुछ उदाहरण देखें------

द्वाविमौ पुरुषो लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षर: सर्वाणि भूतानि कूटस्थोsक्षर उच्चते ।।
(श्रीमद्भगवद्गीता १५/१६)
भावार्थ-----इस संसार में नाशवान् और अविनाशी भी यह दो प्रकार के पुरुष हैं, उनमें भूत प्राणियों के शरीर (जो जड़ पदार्थों से बना है,) तो नाशवान और जीवात्मा (चेतन) अविनाशी कहा जाता है ।                       

उत्तम: पुरुषस्त्वन्य: परमात्मेत्युदाहृत : ।
यो लोकत्रायमावृत्य बिभर्त्यव्यय परमेश्वर: ॥
                  (गीता १५/१७ )
भावार्थ--इन दोनों से उत्तम  पुरुष तो अन्य ही हैजो तीनों लोकों को घेर करके सबका धारण-पोषण करता है एवं 'परमात्मा-परमेश्वरनाम से जाना जाता है ।  
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तम: ।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथित: पुरुषोत्तम: ॥
                     (गीता १५/१८)
भावार्थ--क्योंकि 'मैं' (परमपिता परमात्मा) नाशवान् जड़ वर्ग ;क्षर जगत् से तो सर्वथा अतीत हूँ और अविनाशी जीव-आत्मा से भी उत्तम हूँइसलिए लोक में और वेद में भी 'पुरुषोत्तमनाम से प्रसिध्द हूँ । (यदि आत्मा ही परमात्मा है तो यह गीता क्या कह रही है?)
यदि ये लोग ईश्वर और परमेश्वर को एक ही घोषित करते हैं और सद्ग्रंथों से प्रमाण भी पेश करते हैं तो श्वेताश्वतरोपनिषद के श्लोक ६/७ क्यों नहीं पेश करते जिनमें बहुत ईश्वरों और उनसे पृथक एक परमेश्वर की बात कही गयी है? (देखिए पृष्ठ ४८ पर)
यदि अध्यात्म और तत्त्वज्ञान को एक ही घोषित करते और कुछ आध्यात्मिक प्रमाणों से प्रमाणित भी करते हैं तो आपके समक्ष इन अध्यात्म और तत्त्वज्ञान—दोनों के पृथक-पृथक होने के प्रमाणों वाले श्लोकों को पेश नहीं करते ?
अध्यात्म और तत्त्वज्ञान को पृथक-पृथक वर्णन करते हुये श्रीकृष्ण जी महाराज ने कहा –

अध्यात्मज्ञान नित्यत्त्वं तत्त्वज्ञानार्थ दर्शनम् ।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोsन्यथा ॥
(श्रीमद्भगवद्गीता १३/११)
भावार्थ – अध्यात्म ज्ञान में नित्य स्थिति और तत्त्वज्ञान के अर्थरूप परमात्मा को देखना, यह सब तो ज्ञान है और इससे अन्यथा जो कुछ (अलग) है, वह सब अज्ञान है—ऐसे कहा गया है।

अर्जुन ने पूछा –

किं तद्ब्रम्ह किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम् ।
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते ॥
(श्रीमद्भगवद्गीता ८/१)
भावार्थ – हे पुरुषोत्तम ! जिसका आपने वर्णन किया वह ब्रम्ह क्या है और अध्यात्म क्या है तथा कर्म क्या है और अधिभूत नाम से क्या कहा गया है तथा अधिदैव नाम से क्या कहा जाता है?
भगवान श्रीकृष्ण जी ने बताया –

अक्षरं ब्रम्ह परमं स्वभावो अध्यात्ममुच्यते ।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञित: ॥
(श्रीमद्भगवद्गीता ८/३)
भावार्थ – अविनाशी ब्रम्ह से यहाँ तात्पर्य सच्चिदानन्दघन परमात्मा रूप परम से है और जीवात्मा का भाव रूप अध्यात्म नाम से कहा जाता है तथा भूतों के भाव को उत्पन्न करने वाला शास्तविहित यज्ञ, दान और होम आदि धर्म के निमित्त जो द्रव्यादिकों का त्याग है, वह कर्म नाम से कहा गया है।
ये लोग सबके अंदर रहने वाले ईश्वर को ही सब कुछ यानी परमेश्वर तक भी बताने में लगे हैं और यह भी जनाने-समझाने में और प्रमाण पेश करने में लगे हैं कि वह सब सबके ह्रदय में वास करता है, जैसे ये निम्नलिखित उदाहरण भी पेश करते हैं कि------

ईश्वर: सर्वभूतानां ह्रद्देशेsर्जुन तिष्ठति ।
भ्राम्यन्सर्वभूतानि यन्त्रारुढानि मायया।।
(श्रीमद् भगवद्गीता १८/६१)
हे अर्जुन ! शरीर रूप यन्त्र में आरूढ़ हुये सम्पूर्ण प्राणियों को अंतर्यामी ईश्वर अपनी माया से उनके कर्मों के अनुसार भ्रमाता हुआ सब भूत प्राणियों के ह्रदय में स्थित है।
ये लोग ईश्वर को ही परमेश्वर बताकर, जीवात्मा को ही परमात्मा बताकर उपर्युक्त उदाहरण जनाते-दिखाते हैं किन्तु उन अधोलिखित शलोकों द्वारा ये यह क्यों नहीं जान-समझ और देख लेते कि सबके अंदर ह्रदय में रहने वाला जीवात्मा ही परमात्मा-परमेश्वर नहीं बल्कि परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रम्ह सबसे पृथक् और सबका प्रेरक व नियन्त्रक और मालिक होता है। इतना ही नहीं वह सबके ह्रदय में तो नहीं ही रहता है, जगत् में भी नहीं रहता है। देखिए

मया ततमिदं सर्व जगदव्यक्तमूर्तिना ।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः ।।
(श्रीमद् भगवद्गीता ९/४)
भावार्थ-----मुझ निराकार परमात्मा से यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त हुआ है अर्थात् पसरा हुआ है और सब भूत मेरे अन्तर्गत संकल्प के आधार पर स्थित हैं, किन्तु वास्तव में मैं उनमें स्थित नहीं हूँ।
पुनः ये लोग यह चौपाई तो पेश करते है कि-----
नाम रूप दुइ ईश उपाधी ।
अकथ अनादि सुसामुझि साधी ।।
मगर ये लोग यह क्यों नहीं पेश करते?
एक अनीह अरूप अनामा ।
अज सच्चिदानन्द पर धामा ।।
जब ये लोग यह चौपाई पेश करते हैं कि------
परम प्रकाश रूप दिन राती ।
नहिं चहिए कछु दिया घृत बाती ।।
तब आपके समक्ष यह चौपाई पेश क्यों नहीं करते?
जगत प्रकास्य प्रकाशक रामू ।
मायाधीश ज्ञान गुण धामू ।।
जब लोगों के अनुसार सम्पूर्ण शरीरों में विचरण करने वाला श्वाँस-निःश्वाँस के माध्यम से पतनोन्मुखी सःअहं=सोsहँ तथा उर्ध्वमुखी हँसं=हँसो रूप को ही खुदा-गॉड-भगवान स्वीकार कर लिया जाय तो हर प्राणी मात्र को ही भगवान के अवतार भगवदवतारी क्यों न कहा जाय? और धरती पर कब ऐसा हुआ है कि जीवित प्राणी खासकर मानव धरती पर हों और सोsहँ-हँसो-ज्योति उनमें न हो। तब तो गीता के इन श्लोकों को गलत मान लिया जाय------
 यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥
पारित्राणाय साधुनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्म संस्थापनार्थाय संभावामि युगे युगे ।।  
हे भारत जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती हैतब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ, क्योंकि सज्जन पुरुषों का उद्धार (रक्षा) करने के लिए और दूषित कर्म करने वालों का (सुधार और नहिं सुधरने पर) नाश करने के लिए तथा धर्म संस्थापन करने के लिए मैं युग-युग में अवतरित होता हूँ।
क्या इसको गलत मान लिया जाय अथवा इंकार कर दिया जाये? क्या ऐसा सम्भव है कि इसे गलत करार दिया जा सके और इंकार किया जा सके? नहीं ! कदापि नहीं !!

इसी प्रकार श्रीरामचरित मानस के अवतरण सम्बन्धी इन चौपाइयों को भी क्या गलत मान लिया जाय ? कि –

जब जब होइ धरम कै हानी । बाढ़हि असुर अधम अभिमानी ॥
करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी । सीदहि विप्र धेनु धेनु सुर धरनी ॥
तब तब धरि प्रभु मनुज शरीरा । हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा ॥
धरती पर बढ़े अत्याचारों के लिए इन्द्र, ब्रम्हा और शंकर सहित ऋषि-महर्षि और देवी-देवताओं द्वारा परमप्रभु का पुकार किया जाना भी गलत है ? कि—

जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवन्ता ।
गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिंधुसुता प्रिय कन्ता ॥

.......................

जेहि सृष्टि उपाई त्रिविध बनाई संग सहाय न दूजा ।
सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न पूजा ॥

.......................

भव बारिधि मंदर सब विधि सुन्दर गुनमन्दिर सुखपूंजा ।
मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कंजा ॥

भयभीत हुये मुनि-सिद्ध सहित देवतागणों के उपर्युक्त स्तुति-प्रार्थना पर श्री भगवान द्वारा आकाशवाणी के माध्यम से उन्हे आश्वासन दिया जाना भी क्या गलत है ? कि -

जनि डरपहु मुनि-सिद्ध सुरेसा । तुम्हहि लागि धरिहऊँ नर वेषा ॥
असन्ह सहित मनुज अवतारा । लेहऊँ दिनकर बंस उदारा ॥

पाठक बन्धु ! जरा सोचिए, क्या यह मान लिया जाय कि नारद, ब्रम्हा, इन्द्र और शंकर आदि में सोsहँ नहीं था अथवा वे लोग सोsहँ को जानते नहीं थे ? ऐसा सम्भव नहीं कदापि ऐसा सम्भव नहीं ! फिर ये लोग पुकार किसका कर रहे थे? आकाशवाणी द्वारा आश्वासन क्या सोsहँ-हँसो ने दिया था ? नहीं ! कदापि नहीं ! सोsहँ-हँसो -ज्योति धरती पर सदा ही जीवित प्राणियों के साथ रहता है। जो सदा ही रहता हो, उसका अवतार कैसा ? अवतार अर्थात् अपने निवास स्थान रूप परम आकाश से उतर कर इस धरती रूप धराधाम पर आना तो उन्ही का होगा—अवतरित होना तो केवल उन्ही पर लागू होगा जो इस धरती पर मौजूद ही न हों। अवतार सोsहँ-हँसो-ज्योति, जो यहाँ सबके साथ ही पहले से ही मौजूद है, का नहीं, बल्कि परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम् (खुदा-गॉड-भगवान-अकाल पुरुष-सत्पुरुष-यहोवा-अहूरमजदा-अरिहंत या बोधिसत्त्व) जो धरती पर रहता ही नहीं, सदा ही अपने परमधाम-बिहिश्त-पैराडाइज़ (ETERNAL ABODE) या सत्तलोक-अमरलोक में ही रहा करता है, उसका समय-समय पर अवतार होता है। और वही अवतरित होकर जिस शरीर को अधिग्रहित कर (धारण) इस भू-मण्डल पर लीला कार्य को सम्पादित करता है, वह 'भगवत्तत्त्वम्' वाली शरीर ही भगवदवतार कहलाती है, न कि मात्र सोsहँ-हँसो-ज्योति वाली शरीर। यही कारण है कि 'भगवत्तत्त्वम्' (संक्षेप में तत्त्वम्) वाली शरीर, जिसे भगवदवतार कहते हैं, तो 'मृत्योर्माsमृतं गमय' को तो पूरा करता ही है ---'असदो मा सद्गमय' और 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' को भी सैद्धांतिक, प्रायौगिक और आभ्यासिक रूप में भी अपने शिष्यों को प्रदान कर दिया करता है जबकि सोsहँ-हँसो-ज्योति वाली शरीर ''तमसो मा ज्योतिर्गमय' के सिवाय शेष दोनों प्रथम व अंतिम सूत्रों के बारे में कुछ नहीं जानती। फिर बतला कैसे सकती? और यदि महत्त्वाकांक्षावश बतलाने का कुप्रयास करेंगी तो वह ऊल-जलूल तथा भ्रामकता और मिथ्यात्त्व से युक्त ही होगी। स्पष्टता और सत्यता की सम्भावना उनके बातों में हो ही नहीं सकती।
पाठक बन्धुगण इन उपर्युक्त वाक्यों को बार-बार ध्यान से पढ़ें और अपने परम कल्याण के लिए समझने का सत्प्रयास करें, तत्पश्चात् सत्य ही होने पर ही सही, मगर परमसत्यता-सम्पूर्णतया और सर्वोच्चता लक्षण वाले तत्त्वज्ञान जिससे सम्पूर्ण की सम्पूर्णता प्राप्ति पृथक्-पृथक् और एकत्त्व बोध रूप में भी प्राप्त कर मुक्ति-अमरता का साक्षात् बोध प्राप्त कर अपने अनमोल जीवन को सार्थक-सफल बना लेना ही समझदारी है, न कि अन्धे-अधूरे गुरु-सद्गुरु में फँसे-भरमे-भटके रहकर जीवन को व्यर्थ गँवा देना-वंचित रह जाना।

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